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Idols Worship: क्या मूर्ति पूजा करना सही है? जानें क्या कहते हैं शास्त्र व संत

                              

                                  

(Should we worship idols or not?) हमारे सनातन वैदिक सिद्धांत में मूर्ति पूजा (Idols Worship) नहीं होने की बात कहते हुए कई लोग मूर्ति पूजा का खंडन करते हैं। ऐेसे में कई लोगों के मन में सवाल उठता है कि वास्तव में मूर्ति पूजा की जाए या नहीं। इसका सही जवाब यदि हमें ढूंढता है तो कई संत महात्माओं के प्रवचनों व पुस्तकों की ओर ध्यान देना होगा। जिसमें बहुत तर्किक ढंग से इसका जवाब है। इस संबंध में रामसुखदासजी कहते हैं कि वास्तव में मूर्तिपूजा कोई करता ही नहीं है। क्योंकि यदि मूर्तिपूजा ही करता तो व्यक्ति मंदिर में यही कहता कि है अमूक पहाड़ के अमुक पत्थर की मूर्ति मेरा कल्याण करो। लेकिन,   वास्तव में व्यक्ति मंदिर में मूर्ति का भाव मिटाकर भगवान में भक्ति के भाव से जाकर उसका पूजन करता है। और चूंकि भक्ति में भाव ही प्रधान है। ऐसे में वह भगवान का ही पूजन होता है। फिर शास्त्र भी सब जग ईश्वर रूप है और सर्व खल्विदं ब्रम्हा की बात कहते हैं। जिसका अर्थ है कि ईश्वर तो सब जगह है। तो जो भगवान सब जगह है क्या वो मूर्ति में नहीं होंगे? मूर्ति पूजा के पक्ष में एक तर्क ये भी है कि मंदिर में वैदिक मंत्रों से मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। जिसका अर्थ भी मूर्ति को प्राणरूप किया जाना होता है। फिर भगवान का विशेष ध्यान करने के लिए कोई साकार रूप भी तो होना चाहिए। हां यदि कोई योग मार्ग में है और आत्मा में ही परमात्मा का अनुभव कर जीवनमुक्ती की राह पर है तो उनके लिए मूर्ति पूजन अनिवार्य नहीं रह जाता। लेकिन, भक्ति मार्ग में तो भगवान की मूर्ति भगवद्प्राप्ति में बहुत सहायक है। भक्त शिरोमणी मीरा बाई जैसी कई साध्वी व संत इसके प्रमाण है। ब्रिटिश काल के एक बैरागी बाबा का उदाहरण भी यहां देना प्रासांगिक होगा। जो एक छाते के नीचे रहते और शाला ग्राम का पूजन किया करते। उन्हीं दिनों एक अंग्रेज अधिकारी हुक को जब यह बात पता चली तो उन्होंने बाबा को बुलाकर उनकी मूर्ति पूजा का विरोध किया और शहर छोडऩे को कहा। दूसरे दिन बाबाजी ने हुक साहब का एक पुतला बनाया और उसे शहर में जूता मारते हुए घूमने लगे। इसकी शिकायत भी जब हुक के पास पहुंची तो उन्होंने फिर बाबा को बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो। तो बाबा जी ने कहा कि मैं आपका बिल्कुल अपमान नहीं करता मैं तो आपके इस पुतले का अपमान करता हूं क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है। इस पर हुक बोले कि  मेरे पुतले का अपमान करना मेरा ही तो अपमान करना है। इस पर बाबा जी ने कहा कि आप इस पुतले अर्थात मूर्ति में है ही नहीं फिर भी केवल नाम मात्र से आप पर इतना असर पड़ता है। तो हमारे भगवान तो सब देश, काल, वस्तु आदि में है। तो जो श्रद्धा से मूर्ति में भगवान का पूजन करता है उससे भगवान खुश नहीं होंगे। अंग्रेज अधिकारी को अब अपनी गलती का अहसास हो गया और उन्होंने बाबा को बड़े आदर के साथ स्वतंत्रता पूर्वक मूर्ति पूजा करने को कह दिया। अंत में यही कहना होगा भगवान आत्मा व भाव का विषय है  ना कि शरीर और मन व बुद्धि का। इसलिए तर्क की जगह व्यक्ति को आत्मा के अस्तित्व को पहचानकर परमात्मामा का अनुभव करना चाहिए। जब एक बार अनुभव हो गया तो फिर  परमात्मा मूर्ति ही नहीं आंखों से दिखने वाले हर पदार्थ के अलावा हर कल्पना व आभास में भी होंगे।

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