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भक्त कथा: जब सुदामा का भाव देख खुद को रोक ना पाए भगवान श्रीकृष्ण


श्रीकृष्ण व सुदामा की मित्रता
                                             


'देख सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोये

पानी परात को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल से पग धोये'

श्री नरोत्तमदास जी की ये पंक्तियां ही काफी है वसुधा का सारा वैभव रखने वाले भगवान श्रीकृष्ण व जीवन में एक सेर आटा भी एकत्र ना कर सकने वाले गरीब सुदामा की मित्रता का। 

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                                            सुदामा की कथा

श्री सुदामा जी भगवान श्रीकृष्ण के परम सखा व निष्काम भक्त थे। कभी दोनों गुरु संदीपनीजी के आश्रम में साथ शिक्षा ग्रहण करते थे। लेकिन, समय बीतने के साथ  भगवान श्रीकृष्ण द्वारिका के राजा बने और भक्त सुदामाजी की हालत इतनी दयनीय हो गई कि घर में कभी एक सेर आटा भी एकत्र नहीं हो पाया। जब गरीबी के मारे  प्राण तक पर संकट पैदा हो गया तो एक दिन पत्नी सुशीला ने उन्हें कहा कि आपकी तो द्वारकानाथ श्रीकृष्ण से बड़ी मित्रता है, आप उनके पास क्यों नहीं जाते। मुझे विश्वास है कि उनके दर्शन से ही हमें धन प्राप्त हो जाएगा। नरोत्तमदास जी लिखते हैं कि यह सुन सुदामा कहते हैं कि जिसके लिए ज्ञान और भक्ति ही परम धन है उसे धन से क्या काम है। ब्राम्हण का धन तो भिक्षा ही होता है। यह सुन पत्नी सुशीला कहती है कि घर में भोजन की व्यवस्था भी दूभर हो गई है। अगर कोदो व सावा (सस्ता अनाज)भी भरपेट मिल जाता तो में आपको ये बात नहीं कहती। मैं तो रसोई से टूटा तवा व फूटी कठोती तक नहीं फेंकती। आपको क्यों इतनी दूर भेजती? यह सुनकर भी सुदामाजी पत्नी सुशाीला को खूब समझाते हैं। कहते हैं कि श्रीकृष्ण बड़े राजा है। जिनसे बड़े- बड़े राजा भी नहीं मिल सकते हैं। जिसके पास खाने के दाने भी नहीं, उससे भला कैसे वो मिल सकते हंै? फिर वहां जाने पर बदनामी भी होगी। लोग कहेंगे कि क्या इसी दिन के लिए सुदामा ने श्रीकृष्ण से मित्रता की थी। सुशीला ने कहा कि कुछ नहीं भी लाएं तो श्रीकृष्ण के मधुर रूप के दर्शन ही कर आइए। मेरा मन कहता है कि उसी से हमारे सारे अभाव दूर हो जाएंगे। यह सुन सुदामाजी में भी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शनों की उत्सुकता हो गई और वे  श्रीकृष्ण दर्शन के सुख को सोचकर द्वारिका जाने को तैयार हो गए। जाते समय सुशीला के भेंट के लिए दिए कुछ चावल वे पोटली में बांधकर ले गए। 

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श्रीकृष्ण चंद्र की रूप सुधा के प्यासे सुदामा आनंद से पद पद पर झूमते हुए द्वारिका पुरी को आए। जहां फटेहाल सुदामा को द्वारपालों ने राजमहल के प्रवेशद्वार पर ही रोक लिया। लंबी- चौड़ी पूछताछ के बाद द्वारपाल ने राजसभा में श्रीकृष्ण के पास जाकर बिना पगड़ी, जूती व फटे-पुराने कपड़े पहने एक गरीब व बदहाल ब्राम्हण के द्वारिका में आने की बात कही। जब द्वारपाल ने ब्राम्हण का नाम सुदामा बताया तो श्रीकृष्ण तमककर उठ खड़े हुए। उनकी आंख व ह्रदय भावों से भर गए। तुरंत वे भी बिना जूतियों के पैदल ही सुदामा से मिलने दौड़ पड़े। राजद्वार में जाते ही सुदामा को बिलखते हुए उन्होंने गले से लगा लिया। प्रियदासजी लिखते हैं कि कुछ देर तक वे दोनों मित्र परस्पर छाती से छाती लगाकर इस प्रकार मिले रहे कि मानो दोनों का शरीर एक हो गया हो । इतने में भगवान को सुदामा जी की दुर्बलता का स्मरण हो आया। सोचा कि मेरे गाढ़ आलिंगन से सुदामा को पीड़ा हो रही होगी। इधर सुदामाजी को अपने दुर्बल शरीर के अस्थि पंजर कान्हा को चुभने की चिंता हुई। यही सोच दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन छोड़ा। इसके बाद श्रीकृष्ण ने सुदामा को बुरा हाल होने पर भी मित्र के पास नहीं आने का उलाहना दिया। फिर सिंहासन पर बिठाकर सुदामा के चरण धोए। यहां नरोत्तमदासजी लिखते हैं कि 

'देख सुदामा की दीन दशा करुणा करके करुणानिधि रोये

पानी परात को हाथ छुओ नहीं नैनन के जल से पग धोये'

यानी सुदामा की दीन दशा देखकर करुणानिधी इतना रोये कि उन्होंने परात में भरे पानी की जगह अपने आंसुओं से ही सुदामा के चरण धो दिए। (Friendship of krishna and sudama)

इसके बाद श्रीकृष्ण ने सुदामा से उज्जैन में संदीपनी मुनि के आश्रम में अध्ययन की चर्चा  चलाकर उन्हें सुख के समुद्र में डुबो दिया और स्वयं भी अत्यंत प्रेम में मग्न हो गए। इसी बीच द्वारिका के वैभव को देख छिपाई गई सुदामा की  चावलों की पोटली भी प्रभु को दिख गई। जिसे प्रभु ने सुदामाजी से जबरदस्ती छीनकर खाना शुरू कर दिया। इसे देख सुदामा की आंसुओं की धारा और लंबी हो गई। इसी बीच रुक्मणी के मांगने पर भगवान ने प्रसाद के रूप में वह चावल उन्हें भी दिये। प्रभु ने सुदामा जी की धर्मपत्नी सुशीला के भावों को विचार कर उसी समय उन्हें अपार संपत्ति दे दी। जिसका सुदामा जी को भी पता नहीं लगा। कुछ दिन श्रीकृष्ण के साथ वैभव में बीताकर सुदामा जी द्वारका से जब अपने गांव आए तो उन्होंने देखा कि वह नया और अत्यंत सुंदर नगर हो गया है। उसकी रचना और ऐश्वर्य द्वारका के समान है। उसे देख उन्हें अपनी झोपड़ी व पत्नी का विचार हुआ। इतने में ही सामने से उन्हें सुशीला आती दिखी। जिसने श्रीकृष्ण कृपा से प्राप्त ऐश्वर्य का समाचार सुनाया तब उन्हें विश्वास हुआ। लेकिन, अपार वैभव पाकर भी सुदामा जी उसके मोह व भोगों में आसक्त नहीं हुए। अपने पुराने ढंग से ही व भगवान की भक्ति व प्रेम के रस में डूबे रहते थे। 

तो ऐसी थी भगवान श्रीकृष्ण व सुदामा की प्रेम से भरी मित्रता।

बोलो भक्त व भगवान की जय।


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