श्रीनाभा जी के ग्रंथ भक्तमाल के अनुसार श्रीवारमुखीजी एक वेश्या भक्त थी। एक दिन एक उनके सामने एक छायादार जगह देखकर संतो की एक विशाल मण्डली ठहरी थी। सभी ने यहां- वहां अपने ठाकुर के साथ आसन लगा लिये। इतने में ही वह वेश्या आभूषणों से लदी हुई बाहर द्वार पर आयी। सरल भाव संतों को देखकर वह मन में विचारने लगी कि आज मेरे कौनसे भाग्य उदय हो गए जो ये सन्त मेरे द्वार पर आए हैं। निश्चय ही इन्हें मेरे बारे में पता नहीं। इस प्रकार सोचते हुए वह घरमें गयी और एक थाल में मुहरें भरकर ले आयी। उसे महन्तजी के आगे रखकर बोली, प्रभो! इस धनसे आप अपने भगवान को भोग लगाइये। ये कहते हुए प्रेमवश उनकी आंखों में आंसू आ गये। ये देख श्रीमहन्तजी ने पूछा कि तुम कौन हो? ये सवाल सुनकर वह चुप हो गई। उसे चिंता में देखकर श्रीमहन्तजी ने फिर कहा कि तुम बेझिझक अपने मन की बात कहो। तब वीरमुखीजी ये कहकर संत के चरणों में गिर पड़ी कि मैं वेश्या हूं। फिर कुछ संभलकर प्रार्थना की कि प्रभो! धन से मेरा भण्डार भरा हुआ है। आप कृपाकर इसे स्वीकार कीजिये। यदि आप मेरी जाति का विचार क धन नहीं लेंगे तो मैं जीवित नहीं रह सकूंगी। तब श्रीमहन्तजीने कहा, इस धनको भगवानकी सेवामें लगाने का बस यही उपाय है कि इस धन के द्वारा श्रीरंगनाथजीका मुकुट बनवाकर उन्हें अर्पण कर दो। इसमें जाति बुद्वि दूर हो जायगी। श्रीरंगनाथजी उसे स्वीकार करेंगे।
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तब वेश्या बोली-भगवान्! जिसके धनको ब्राहमण छूते तक नहीं हैं, उसके द्वारा अर्पित मुकुटको श्रीरंगनाथजी कैसे स्वीकार करेंगे? तब महन्तजीने कहा-हम तुम्हें विश्वास दिलाते हैं कि वे अवश्य ही तुम्हारी सेवा स्वीकार करेंगे। इस कार्य के लिये हम तब तक यहीं रहेंगे,तुम मुकुट बनवाओ। इसके बाद वेश्या ने अपने धन से भगवान का सुन्दर मुकुट बनवाया। इसके बाद वह उस मुकुट को थाल में सजाकर चली। सन्तों की आज्ञा पाकर वह वेश्या श्रीरंगनाथजी के मन्दिर में तो चली गई, पर अपने को अपवित्र जानकर उसके मन में संकोच रहा। संतों के कहने पर बड़ी मुश्किल से वह लजाते हुए दीन भाव से श्रीरंगंनाथजी के पास पहुंची। जहां उसने जैसे ही हाथ में मुकुट लेकर भगवान का पहनाना चाहा, वैसे ही श्रीरंगनाथजी ने उसे धारण करने के लिए अपना सिर झुका दिया। इसके बाद तो लोग भक्त व भगवान दोनों की जय-जयकार करने लगे।
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